एक ठहराव, एक अलगाव, एक उदासी सी है,
रूह अन्दर से कुछ रुंवासी सी है,
अजब सा एक एहसास मुझे घेरे है आदम,
बंद दरवाज़ों की, मन के, एक तलाशी सी है ...
इस रेत पे ये लकीरें, किसने उकेरीं हैं,
सुखी सी इस ज़मीन पर, बूँदें बिखेरी हैं,
कौन है मायूस इस माहौल से इतना,
रात के आँचल की किसने, परतें उधेरी हैं ...
क्या इन अंधेरों को कोई पहचानता है,
क्या इन आवाजों में कोई समानता है,
बड़ी अजीब बात है, ये सब सुना देखा सा लगता है,
क्या कोई इस सब का मतलब जानता है ...
ये गलियारे यूँ ही मिलते हैं, जुड़ते हैं, खो जाते हैं,
ये बवंडर थोडा माखौल उड़ा कर, सो जाते हैं,
इन भवरों के बनने का कारण समझ नहीं आता,
मगर इन रातों के भी, आखिर में सवेरे, हो जाते हैं ...
1 comment:
bahut khoob guchu da, as always
Post a Comment