Thursday, November 11, 2010

असमंजस्य

एक शाम अँधेरी 
कौतुहल से घिरे हुए 
खुद को मैंने ,
खुद से बातें करते देखा . 
  
एक घडी गोधुली ,
अलसाई आँखों से मैंने 
चारों ओर चलते जीवन को 
मुझपे व्यंग सा कसते देखा 

उस रोज़ पुरानी 
चीज़ों ने थी कमर कसी 
मुझको बीते कल में 
खींच खींच के ले जाने को 

एक लिफाफा 
अँधेरे का 
मेरे चारों ओर बन आया 
धीरे धीरे ,

बड़ा अजब षड़यंत्र लगा ये 
मुझे नहीं विश्वास हुआ 
अर्ध निद्रा में घिरे हुए 
अस्थिर से  मन का साथ 
ये कैसा खिलवाड़ हुआ  ...

Tuesday, September 28, 2010

क्षणभंगुर

घने  अँधेरे  कोहरे  की  चादर  में  लिपटा क्षण बैठा है ,
बीच  भीड़  के  सहमा, सकुचा, घबराया  सा क्षण बैठा  है,
कुछ  को  नज़र  नहीं  भी  आता , सूक्ष्म  स्वरुप  है .. क्षण  बैठा  है, 
कुछ  की  गति  तीव्र  है  इतनी,  शिथिल  मगर  वो  क्षण  बैठा  है  ...

कभी  कभी  ये  दृढ  निश्चई  ..  अटल  तपस्वी  सा  दिखता  है  ...
और  कभी  ये  चंचल  नटखट  बच्चे  सा  भागा  फिरता  है  ...
सूर्य  की  पहली  किरणों  से  पहले  उठता  अंगराई  लेता ..
मंदिर  की  घंटियों  से  पहले , हमनें  देखा , क्षण  बैठा  है ...

कभी  ये  नवयुवती  के  यौवन  के  बखान  सा  है  मदिरामए ...
वयोवृद्ध  के  मन   सा  गहरा , कभी  ये  लगता  है  करुनामए  ...
जल  प्रपात  के  जल  सा  मीठा,  निर्मल  शीतल  जीवनदाई  ...
कभी  समाज  में  फैले  तम  का  मुझको  लगता  ये  अनुयायी

क्षण - क्षण  मिल के जीवन बनता, जीवन है  क्षण  का मोहताज, 
क्षण  - क्षण जीवन लेता क्षण से, जिंदा रहने का विश्वास,
एक प्रलय के क्षण से डर कर जीवन भर मानव चलता है,
कभी ठहर कर इसको देखो,  क्षणभंगुर ये क्षण कैसा है ...