Wednesday, May 23, 2012

आँखें



उन  घबराई आँखों ने अंधड़ देखे हैं, 
गिरते उड़ते पत्तों के पतझर देखे हैं,
वो आँखें थोड़ी सी कुम्हलाई लगती हैं, 
शायद मायूसी के कुछ  मौसम देखे हैं । 

वो आँखें खुद में दर्द समेटे बैठी  हैं,
जाने अनजानों के कुछ मातम देखे हैं,
रात कभी घबरा के आँखें  खुलती हैं,
सपनो  में भी सब सूने आँगन देखे हैं ।

आँखों का क्या है, यूँ ही ये भर जाती हैं,
शायद सूनी माँगो के मंजर देखे हैं,
सूखी  पलकें भी कभी कभी सिसकती हैं,
रेतीले मन  के भी क्रंदन  देखे हैं ।

मन आँखों की सीधे सीधे ही सुनता है,
आँखों देखी पे जाल  हमेशा बुनता है,
जब आँखें कहती हैं ये जगत  छलावा है,
मन  थोड़ा थोड़ा सा अन्दर ही घुटता है ...