Saturday, March 12, 2011

जुस्त-ए-जू


मै इंतेजार करता हुं,   
तेरे  आने  का  मजलिस  में,
मै दिन गुजार करता हुं, 
ये आंखे चार  करने को,
हर आफताब से माहताब तक,
हर सेहेर से  हर  रात तक...

ओ रूह-ए-सुखन ,
मै तलाश करता  हुं,
तेरी आहट का चौखट पे,
तेरे सजदे का  मस्जिद में,
तेरी खुशबू का महफिल में,
तेरे जज्बे का  इस  दिल  में...

मै जब सजदे में झुकता हुं,
तो आंखे बंद नही करता,
के क्या जाने खुदा तब ही,
कही रहमत अता कर दे,
तुझे रखने कि इस दिल में,
मुझे कुव्वत अता कर दे...

तेरे होने न होने का,
मुझे अब शक़ सा होता है,
के तारो के निकलने का,
मुकम्मल वक़्त होता है,
मै अब तो अमन चाहता हुं ,
खुद से भी, खुदा से भी,
के अब इतनी इनायत कर,
मुझे खुद से रिहा कर दे...