Tuesday, December 30, 2008

अरमानों के दोराहे

चलता हूँ मैं साथ मेरे दोराहे चलते हैं …

कुछ चाहे और कुछ मेरे अनचाहे चलते हैं …

रात हमेशा ही पहलु मैं करवट लेती है …

संग सवेरा , साँझ कभी , हम सारे चलते हैं …

कभी अकेला होता हूँ तो तारे चलते हैं …

साथ मेरे ये गलियां और चौराहे चलते हैं …

मेरी आँखों मैं अक्सर बीते नज़ारे चलते हैं …

कुछ चाहे और कुछ मेरे अनचाहे चलते हैं …

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अब आग मुझे मद्धम , शीतल अंगारे लगते हैं …

तम ओरहे बैठे मन के उजियारे लगते हैं …

मित्र मुझे अपने अब ये अंधियारे लगते हैं …

ख़ुद के मीठे वादे भी अब खारे लगते हैं …


दूर क्षितिज पर मुझको थोरा कुहासा दीखता है …

हर चेहरा जाने क्यूँ अब धुंधला सा दीखता है …

हर सेहर मुझे जाने क्यूँ अब सेहरा सा दीखता है …

मर्मवृक्ष को मेरे सब पतझर क्यूँ दीखता है …


ये दोराहे साथ मेरे हरबार निकलते हैं …

जैसे साथ आवाज़ गीत में साज़ निकलते हैं …

मेरी हर स्वछंद कविता में राग निकलते हैं …

अनदेखे अनचाहे पर कल -आज निकलते हैं …


मेरे स्वप्नों में भी अजब अजब आकार निकलते हैं …

कुछ लगते कपोत हैं बाकी बाज़ निकलते हैं …

उन बाजों के पंजों में

जकरे हुए

सहमे हुए

लहू लुहान

शायद निष्प्राण

आस पास के शोर से ख़ुद को बचाने की

पंजों के ज़ोर से ख़ुद को निकालने की

नाकाम

कोशिश करते हुए

धुल धूसरित

अवरोधित कंठ से चीखते हुए

अब भी अंधेरे में रास्ता टटोलते हुए

आगाज़ और अंत के घेरे में शायद मुझे ही कहीं खोजते हुए

मेरे कुछ …… अरमान निकलते हैं …


जब लगे काल इक्छुक है अब इन प्राणों को पि जाने को …

जब लगे धरा भी आज फटी है ये सर्वस्वा सामने को …

जब लगे की अब अँधियारा ही जीवन धारा बन आया हो …

जब लगे के मन अब जीवित नही बस ये ख़ुद की ही छाया हो …


जब लहू लगे ख़ुद का काला …

जब चर्म लगे कोई गहना हो …

जो लगा को बस ख़ुद को ढकने को

जिसको बस डाले रखना हो …


जब अपने ही मन के आँगन में हाहाकार सुनाई दे …

जब कलि रात के अंधियारे में कोई चीख अंगराई ले …

जब प्राण लगे एक पंछी सा , पर पिंजरा एक दिखाई दे

क्या करे आदमी जब जीवन में अल्पविराम दिखाई दे

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