Thursday, September 18, 2008

अनजान आदमी

रास्तों की ठोकरें जिसको नही पहचानती ..
है खरा राही न जिसको झुक के देखता कभी ..
मैं हूँ वो पाषाण जिसका कोई वजूद है ..
मैं हूँ वो इंसान जो सूखा हुआ सा ठूठ है ...

मुझे कोई जानता है है कोई चाहता ..
मैं खरा हूँ अब वहां आगे नहीं जहाँ रास्ता ..
मैं चला आया हूँ इतना दूर अपने आप से ...
मैं यहाँ अब जल रहा हूँ अपने ही संताप से ..

अपने विचारों की मैं गहराई था देखने चला ....
ख़ुद को छोटा मानने की भूल था मैं कर चला ...
अपने मन के ही अंधेरों मैं कहीं फिर खो गया ...
मैं चला था आगे लेकिन ... रास्ता फिर सो गया ...

मैंने सोचा था मुझको प्रकाश कोई जागेगा ...
मैंने सोचा था नही कोई हाथ आगे आएगा ..
मैंने सोचा था की मेरी ये सुसुप्तावस्था चिर है ....
मैंने सोचा था यहाँ गिरना ही अब तकदीर है ...

मैंने अपने आप को हल्का सा आँका था कहीं ...
मैंने अपने ख्वाब को तरजीह नहीं दी थी कभी ...
मैंने चाह था के मुझको देखें अब कोई भी ...
मैंने ख़ुद के ढक लिया था ख़ुद की चादर मैं कहीं ...

ख़ुद को ख़ुद से ऊपर सदा मन्ना मेरा यहाँ ...
ख़ुद को पहचानना ... ख़ुद को भुला देना यहाँ ..
सब हैं कहते है ग़लत ... मेरा अहम् भी साथ है ...
लेकिन कैसे मान लूँ की ये ज़रा सी बात है ...

हैं कौन जो एक बार भी मुझको कभी पढ़ पाएगा ...
है कौन जो मेरी विरक्ति ... क्यूँ है मुझे बतलाएगा ...
है कहाँ कोई जो यहाँ मेरे रास्तों की लकीर है ...
कौन है जो ये बताए क्या मेरी तकदीर है ...

यह अधूरा मन मेरा क्या प्रसन्नता चाहता नही ...
क्या ये इतना क्रूर जो मेरा भला चाहता नही ...
क्या है इसमे बात जो ये इनता बरा मगरूर है ...
क्या है यहाँ मेरी खता जो ये इतना मजबूर है ...

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