Tuesday, February 18, 2014

मैं क्या चाहता हूँ

इस बेबसी में ख़लल चाहता हूँ ,
किसी ओर से एक पहल चाहता हूँ; 
मैं ये सोचता हूँ कि रुक जाऊं सोचूं, 
मैं जीवन में थोड़ा सब्र चाहता हूँ ;

शायद मैं थोड़ा सफ़र चाहता हूँ ,
मैं राहों मैं थोड़ा बदल चाहता हूँ ;
कभी खुद को आगे को देता हूँ धक्का, 
कभी ऊँचे पेड़ों का फ़ल चाहता हूँ ;

कभी मुझको लगता है सब कुछ छलावा, 
कभी मोड़ पे एक महल चाहता हूँ ;
मुझे आते जाते ये बादल लुभाते ,
मैं शायद ये अम्बर पटल चाहता हूँ; 

मैं आया कहाँ से, कहाँ जाउंगा मैं,
मैं सारे सवालों का हल चाहता हूँ; 
जब मन में हैं उठते यह सारे बवंडर, 
मैं ये सोचता हूँ, मैं क्या चाहता हूँ । 


Wednesday, May 23, 2012

आँखें



उन  घबराई आँखों ने अंधड़ देखे हैं, 
गिरते उड़ते पत्तों के पतझर देखे हैं,
वो आँखें थोड़ी सी कुम्हलाई लगती हैं, 
शायद मायूसी के कुछ  मौसम देखे हैं । 

वो आँखें खुद में दर्द समेटे बैठी  हैं,
जाने अनजानों के कुछ मातम देखे हैं,
रात कभी घबरा के आँखें  खुलती हैं,
सपनो  में भी सब सूने आँगन देखे हैं ।

आँखों का क्या है, यूँ ही ये भर जाती हैं,
शायद सूनी माँगो के मंजर देखे हैं,
सूखी  पलकें भी कभी कभी सिसकती हैं,
रेतीले मन  के भी क्रंदन  देखे हैं ।

मन आँखों की सीधे सीधे ही सुनता है,
आँखों देखी पे जाल  हमेशा बुनता है,
जब आँखें कहती हैं ये जगत  छलावा है,
मन  थोड़ा थोड़ा सा अन्दर ही घुटता है ...

Thursday, December 29, 2011

मुद्दे की बात



मुद्दा हर  सफल  होता  है, 
हर  मुद्दे  का  हल  होता  है, 
पर  जो  मुद्दे  मैं  वो  शामिल  हों, 
तो  फिर  मुद्दा  दखल  होता  है |

क्यूँ कर ये मुद्दे  ऐसी  ज़ुद्दो  ज़ेहेद  बनते  हैं, 
ये  फैसले कौन  सी  तामिल की हद  बनते  हैं, 
बड़े  कमज़ोर  हो  जाते  हैं  तख़्त  ओ  ताज  के  मालिक,  
ये  मुद्दे  जैसे  ही  कमबख्त हम  सफ़र  बनते  हैं |

अब  संजीदगी  है  गौण  .. अब  कुछ  असल  नहीं, 
 अब  भीड़  है  बस  … कोई   भी  सच्ची  सक्ल  नहीं, 
है  सही  कौन  गलत  कौन  इससे  अब  फर्क  नहीं, 
बात  है  बात  की  बस …  बात  का  कोई  अर्क  नहीं| 

अब  गर  मुद्दे  पे  रहे  बात  तो  फिर  बात  बने, 
न  हो  सतरंज  की  बिसात   तो  फिर  बात  बने,  
मैं  नहीं  कहता  सही  है  ये  या  वो  गलत  है, 
गर  हो  मंजिल  से  सरोकार  तो  फिर  बात  बने|   

Saturday, September 3, 2011

मुसाफिरनामा

अजीब  शहर  है .... यहाँ  लोग  किस्तों  मैं  जीते  हैं 
हाथ  मिलते  हैं .... अजनबी  रिश्तों  मैं जीते हैं
यहाँ कोई  किसी  के  लिए  क्या  करेगा 
यहाँ तो  सय्याद भी  फरिस्तों  से  जीते हैं

कृत्रिम रौशनी है, हर  तरफ  की  चहल  पहल  छलावा  है
यहाँ दिलों  मैं प्यार  नहीं  है ... सब  दिखावा  है
आज़ाद  आसमान  में सब परकटे  से बाज़  हैं
हर शाम  को  जीवन  में थोडा  सा  और  पछतावा  है

मन  अंगराई लेता  है ... ये  सोना  चाहता  है
कहीं किसी कोने  में छुप के रोना  चाहता है
ये शोर  कानों  में बर्दास्त  करना  मुश्किल  है
खुद  को अब  और नहीं ये खोना  चाहता है

पर  ये भीड़  और ये दौड़  अनंत  नहीं है
ये परीक्षा  इतनी  भी अत्यंत  नहीं है
ये रास्ते  मुश्किल हैं, कठोर हैं माना 
ये शुरुआत है या मध्य है ... ये अंत नहीं है || 


Saturday, April 9, 2011

कश्मकश


एक ठहराव, एक  अलगाव, एक उदासी सी है, 
रूह अन्दर से कुछ रुंवासी सी है, 
अजब सा एक एहसास मुझे घेरे है आदम,
बंद दरवाज़ों की, मन के, एक तलाशी सी है ... 

इस रेत पे ये लकीरें, किसने उकेरीं हैं,
सुखी सी इस ज़मीन पर, बूँदें बिखेरी हैं,
कौन है मायूस इस माहौल से इतना, 
रात के आँचल की किसने, परतें उधेरी हैं ...   

क्या इन अंधेरों को कोई पहचानता है,
क्या इन आवाजों में कोई समानता है,
बड़ी अजीब बात है, ये सब सुना देखा सा लगता है, 
क्या कोई इस सब का मतलब जानता है ...

ये गलियारे यूँ ही मिलते हैं, जुड़ते हैं, खो जाते हैं,
ये बवंडर थोडा माखौल उड़ा कर, सो जाते हैं,
इन भवरों के बनने का कारण समझ नहीं आता, 
मगर इन रातों के भी, आखिर में सवेरे, हो जाते हैं ...

Saturday, March 12, 2011

जुस्त-ए-जू


मै इंतेजार करता हुं,   
तेरे  आने  का  मजलिस  में,
मै दिन गुजार करता हुं, 
ये आंखे चार  करने को,
हर आफताब से माहताब तक,
हर सेहेर से  हर  रात तक...

ओ रूह-ए-सुखन ,
मै तलाश करता  हुं,
तेरी आहट का चौखट पे,
तेरे सजदे का  मस्जिद में,
तेरी खुशबू का महफिल में,
तेरे जज्बे का  इस  दिल  में...

मै जब सजदे में झुकता हुं,
तो आंखे बंद नही करता,
के क्या जाने खुदा तब ही,
कही रहमत अता कर दे,
तुझे रखने कि इस दिल में,
मुझे कुव्वत अता कर दे...

तेरे होने न होने का,
मुझे अब शक़ सा होता है,
के तारो के निकलने का,
मुकम्मल वक़्त होता है,
मै अब तो अमन चाहता हुं ,
खुद से भी, खुदा से भी,
के अब इतनी इनायत कर,
मुझे खुद से रिहा कर दे... 

Wednesday, January 19, 2011

जीवन

अनदेखे  गलियारों  में, अलफ़ाज़  लिए,  
कुछ साज़ लिए,
अनछूई सी  रातों  में,
 कुछ  कच्चे  चिट्ठे  बांच  लिए,
अंधियारों  ने  अंगराई  ली,
आलिंगन में उजियारों के,
कुछ अपने मन की बात कही,
कुछ सबके दुखड़े बाँट  लिए,
सूने  मन  की परिभाषा तो,
अपने  ही  अन्दर  बसती  है,
कुछ  कहते  हैं  चुप  रहने  को,
कुछ  कहते  हैं  बिन  सांस लिए, 
एक  अजायबघर  में  भी,
सब  अजब  अजब  सी  चीजों  में,
कुछ लोग दिखाई देते हैं,
पहचाने से अंदाज़ लिए,
अचरज सा मुझको होता है,
जीवन के अजब विवादों पर,
जब  शोर  सुनाई देता है,
अपवाद  भरे  संवाद  लिए |